शायद (Perhaps-Part VI)
चारों ओर अन्धकार था,
बिजली चली गयी थी शायद।
चाँद का भी दिखना मुस्किल था,
बादलों का अम्बार लगा था शायद।
पता नहीं क्यों मैं आसमान की ओर ही देख रहा था,
मेरी निगाहे कुछ ढूँढ रही थी शायद।
एक पल ऐसा लगा बादलों के पीछे कोई छिपा है,
पर वोह तो कोई तारे का टिमटिमाना था शायद।
तारा दिखा, पर अब मेरा मन उदास हो गया था,
उसकी फरमाइश याद आ गयी थी शायद।
आज वो मेरे साथ होती तो,
उस तारे को तोड़कर उसे देता शायद।
यही सब सोच रहा था के बिजली आ गयी,
अन्धकार रोशनी से रूठ गयी थी शायद।
मेरी कहानी का अंत भी कुछ ऐसा ही था,
मेरा आना ही उसकी जाने की वजह थी शायद।
(C) All Rights Reserved: रोशन उपाध्याय
बिजली चली गयी थी शायद।
चाँद का भी दिखना मुस्किल था,
बादलों का अम्बार लगा था शायद।
पता नहीं क्यों मैं आसमान की ओर ही देख रहा था,
मेरी निगाहे कुछ ढूँढ रही थी शायद।
एक पल ऐसा लगा बादलों के पीछे कोई छिपा है,
पर वोह तो कोई तारे का टिमटिमाना था शायद।
तारा दिखा, पर अब मेरा मन उदास हो गया था,
उसकी फरमाइश याद आ गयी थी शायद।
आज वो मेरे साथ होती तो,
उस तारे को तोड़कर उसे देता शायद।
यही सब सोच रहा था के बिजली आ गयी,
अन्धकार रोशनी से रूठ गयी थी शायद।
मेरी कहानी का अंत भी कुछ ऐसा ही था,
मेरा आना ही उसकी जाने की वजह थी शायद।
(C) All Rights Reserved: रोशन उपाध्याय
Comments
guess i'll have to try and re-acquaint myself with this poet-brother of mine!
great work dada! keep it up.