चारों ओर अन्धकार था,
बिजली चली गयी थी शायद।
चाँद का भी दिखना मुस्किल था,
बादलों का अम्बार लगा था शायद।
पता नहीं क्यों मैं आसमान की ओर ही देख रहा था,
मेरी निगाहे कुछ ढूँढ रही थी शायद।
एक पल ऐसा लगा बादलों के पीछे कोई छिपा है,
पर वोह तो कोई तारे का टिमटिमाना था शायद।
तारा दिखा, पर अब मेरा मन उदास हो गया था,
उसकी फरमाइश याद आ गयी थी शायद।
आज वो मेरे साथ होती तो,
उस तारे को तोड़कर उसे देता शायद।
यही सब सोच रहा था के बिजली आ गयी,
अन्धकार रोशनी से रूठ गयी थी शायद।
मेरी कहानी का अंत भी कुछ ऐसा ही था,
मेरा आना ही उसकी जाने की वजह थी शायद।
(C) All Rights Reserved: रोशन उपाध्याय
The Snake in the Pocket
5 years ago
2 comments:
what do i say? never expected such stuff from you. quality yes. but not such romantic stuff considering my acquaintance with you which goes back almost my lifetime; and my understanding of your nature.
guess i'll have to try and re-acquaint myself with this poet-brother of mine!
great work dada! keep it up.
actually words are running away from me....because i m ready to comment on your thoughts printed on a white paper...they(words) r saying we r not able to describe the actual quality of thoughts......so i can tell u.. its marvellous..last two lines of never ending paragraph spread the reality of your life..its too touchy...keep it up bro..
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