शाम का वक्त था,
रात दरवाजे पर दस्तक दे रही थी।
सूरज की रोशनी ढलते ढलते,
एक मीठी कहानी सुना रही थी।
कहानी का सार कुछ ऐसा था,
लगा मुझको पहले कही सुना था।
मेरे हाथो में डोर थमाकर,
सूरज रात्रि से मिलने जा रहा था।
अब क्या था वह डोर थामे ,
मैं धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था।
ध्यान से देखने पर लगा मैं,
उस पहाड़ के टीले की ओर बढ़ रहा था।
टीले की चोटी पर देखा,
एक दीया सा कुछ टिमटिमा रहा था।
उत्सुकता के कारण दिमाग,
पैरों को मजबूर कर रहा था।
चलते चलते अँधेरा छा गया,
पर लक्ष्य पास आने से कतरा रहा था।
इतना चलने के बाद तो,
पैरो का खयाल करना जरूरी हो रहा था
कहानी अभी ख़त्म नही हुई थी,
सूरज ने अंधेरे की चादर ओड़ ली थी।
अब घर लोटना जरूरी था,
रास्ते को देर जो हो रही थी।
घर के ओर बढने पर,
पैरों में थकावट सी लग रही थी।
कहानी इतनी भारी थी,
उसकी असर अब भी हो रही थी।
घर के रास्ते चलते - चलते,
मेरे मस्तिस्क में हलचल सा कुछ हो रहा था।
उस कहानी की उस मरीचि को समझने का शायद,
एक असफल प्रयाश हो रहा था। (C) All Rights Reserved: रोशन उपाध्याय
This poem was written by me circa 1998/99 and uploaded in the blog in 2008 as compilation.
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